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शास्त्रों में वर्णन है कि दण्डकारण्य के उत्तर से दक्षिण की ओर जाने वाला एक महामार्ग था । उसपर एक शानदार भोजनालय था । उसका मालिक बहुत ही मृदभाषी था । आने – जाने वाले यात्रियों को बड़े प्रेम से बुलाता और भोजन को आमंत्रित करता , पर जो यात्री अंदर जाते उसे बाहर आते कोई नहीं देख पाता कारण था कि भोजनालाय का मालिक असुर जाति का था और उसके दो सहायक थे जिंका नाम आतापी और वातापी था । दोनों बहुत बड़े मायावी थे । एक पेय पदार्थ बन जाता और दूसरा भोजन । मालिक इलविल उन्हें यात्रियों के सामने परोसता । यात्रियों के पेट में जब भोजन चला जाता तो इलविल कहता — आतापी , वातापी बाहर आओं । दोनों यात्री के पेट फाड़कर बाहर आ जाते । यानि हर यात्री उनका भोजन हो जाता था । इस वर्णन का तात्पर्य है कि बुराई मनुष्य को खा जाता है और मनुष्य इसलिए मारा जाता है कि व्यक्ति के काम से ज्यादा उसकी चिकनी – चुपड़ी बातों में उलझ कर अपना विवेक खो देता है और अपने कर्म , दायित्व को भूल जाता है , लेकिन जो व्यक्ति निःस्वार्थ भावना से अपना कर्म करते हुए समाज कल्याणनार्थ काम करता है वास्तव में वह भारतीय संत परंपरा का संवाहक होता है । आज हम बुराई को देखते हैं और चुपचाप चल देते हैं पर वास्तविक संत इसका निदान करता है । दंडारण्य के अंदर यात्रियों के साथ हो रहे अन्याय और बढ़ रही बुराई का अंत भी हम जान लें । एक ऋषि जब उस भोजनालय के पास पहुँचे तो मानव हड्डियों के ढेर को देख बहुत ही द्रवित हुए उन्होने इलविल को मजा चखाने को सोचा । उन्होने भोजन किया और एक लंबी डकार ली तब आदतन इलविल ने कहा – आतापी , वातापी बाहर आओं परंतु न ऋषिवर का पेट फटा और न आतापी ,वातापी बाहर निकले । इलविल ने फिर एक बार ज़ोर से कहा पर वे बाहर नहीं आयें । इधर ऋषि जिनका नाम अगस्ति था ने फिर एक लंबी डकार ली और पेट पर हाथ फेरते हुए कहा वे बाहर नहीं निकल सकते , उन्हें मैंने हजम कर लिया । पचा लिया । मेरे पेट के अंदर जल कर भस्म हो गए । बाद में इलविल भी भाग गया पर रूपक है की हमारी संत परंपरा में बुराई को हजम कर एक स्वस्थ समाज की रचना की कुबत थी वह न सिर्फ गुफाओं में बैठ कर तपस्या करते बल्कि जब समाज में बुराई फैलती उसके निराकरन के लिए समाज में भी आते थे । हमें उनसे प्रेरणा लेनी चाहिए ।
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