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भारत में आज जो समस्याएँ दिख रही हैं उससे हमारा बुद्धिजीवी समाज काफी चिंतित है सिर्फ चिंतित ही नहीं बल्कि इसके समाधान के लिए चिंतन भी कर रहा है । राजनैतिक ,आर्थिक सामाजिक एवं आध्यात्मिक स्तर तक में उन्हें या तो दोष दिखाई दे रहा है या फिर दोष मढ़ने जैसी साजिश दिख रही है । इन दोनों ही स्थितियों में हमारा देश , हमारा समाज प्रभावित होने वाला है । नैतिक स्तर तो गिरेगा ही साथ ही हम आर्थिक रूप से भी कमजोर होंगे । इसलिए चिंता स्वाभाविक है । सवाल है ऐसा क्यों हो रहा है ? इस सवाल का जवाब जानने के पहले हम इस उक्ति पर नज़र डालते है – “जब यह कहा गया कि अब युद्ध जमीन पर नहीं बल्कि विचारों से लड़ी जाएंगी “ विचारकों की बातें उस वक़्त भले ही न समझ मे आई हो पर आज उनके इस विचार का प्रतिविम्ब स्पष्ट दृष्टिगोचर हो रहा है । भारत में कुछ संशोधनों के साथ मैकाले शिक्षा पद्धति आज भी लागू है । इसमें भारतीयता की खुशबू नहीं है । नतीजतन हमारे बच्चों ने जो शिक्षा पाई है उसमें पश्चिम की ही खुशबू है बस बाप – दादाओं का संस्कार जो उन्हे आनुवंशिकता में मिली है उन्ही संस्कारों ने उसे यहाँ की मिट्टी से जोड़कर रखा है तभी वे पश्चिमी वयार में भी भारत की बात कर लिया करते हैं । अन्यथा इस शिक्षा पद्धति ने हमारी संतति को इस भूमि से काटने का प्रबंध कर लिया है । कल तक इन बातों पर बहुत ज्यादा विचार नहीं किया जाता था पर जब आज का बालक शिष्टाचार खो बैठा है , युवकों का नैतिक पतन हो रहा है तो चिंता बढ़ी है । उस पर से दो बातें और सामने आ गई पहली बात तो यह कि आधुनिक पाठ्य पुस्तकों में कृष्ण और हनुमान के चरित्र को विकृत रूप में प्रस्तुत किया गया । दूसरी बात यह हुई कि हमारे धर्म की परिभाषा को सीमित , संकुचित रूप में सबके सामने रखा जाने लगा । यह दोनों ही बातें हमारे मनोबल ,आत्मविश्वास और संस्कारों पर एक आघात हैं । हम सभी जानते हैं कि श्रीकृष्ण एक योग्य गुरु के अनुपम उदाहरण हैं । उनकी शिक्षा गीता में अंकित है । जिसे देश में ही नहीं बल्कि विश्व में भी आदर दिया जाता है । श्री कृष्ण ही ऐसे चरित्र हैं जो सभी चुनोतियों का सामना करने में सक्षम हैं । आज जिस प्रकार की समस्या हमारे युवकों के सामने है उनका सामना करने की शिक्षा गीता और उनके चरित्र को पढ़कर प्राप्त की जा सकती है । हनुमान जैसा लगनशील , आत्मविश्वासी बुद्धि विवेक परिश्रमी ,समस्याओं के समाधान दुंढ्ने वाला चरित्र शायद ही कहीं मिले। ऐसे महापुरुषों के चरित्र को भी गलत रूप में परोसना हमारे युवा वर्ग को आत्मिक एवं शारीरिक रूप से कमजोर करने की साजिश नहीं तो क्या है ? इससे तो हमारे जड़ ही कमजोर हो रहे हैं या फिर इसे काटने की तैयारी है । दूसरी ओर धर्म की परिभाषा को विकृत करने का विचार भी तेजी से चल पड़ा है , भारतीय धर्म की आलोचना कर मिशनरियाँ धर्म परिवर्तन करा रही हैं जिसका कुप्रभाव यह हो रहा है कि धर्म के आधार पर भारत के भूभाग को अलग करने की मांग बढ़ रही है । सिक्किम ,वर्मा ,असम ,अरुणाचल प्रदेश इसके उदाहरण हैं । जरा सोचिए , सोचकर आपको लगेगा कि अपने देश का भूखंड अंधकार की जा रहा है और अपने देश का नक्शा छोटा पड़ता जा रहा है । और, समस्या इसी प्रकार बढ़ती रही तो हम और हमारा देश – समाज कहाँ होगा ? जिस धर्म में व्यापकता की बात हो , बसुधैव कुटुम्बकम , सर्वे भवन्तु सुखिन —– सर्वे भवन्तु निरामया का भाव हो वह धर्म संकुचित और संकीर्ण कैसे हो सकता है ? इसे संकुचित ,संकीर्ण बताकर बरगलाना और धर्म पाश से मुक्त करा उच्छ्श्रिंखल बनाने का काम चल रहा है इस स्थिति में एक बेकाबू समाज की ही रचना संभव है इस प्रकार हमारा समाज /युवा को भटकाव की दिशा में ले जाना हमारे लिये एक समस्या ही है । हम कैसे चले इसका मार्ग निर्धारण यदि धर्म करता है तो मार्ग पर चलने और बाधाओं को पार कर सफलता प्राप्त करने की क्षमता महापुरुषों के आदर्शों से मिलता है और इसे ही समाप्त करने की चुनोती का सामना हमे करना पद रहा है । इसके समाधान की चिंता और चिंतन आवश्यक है ।
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