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आखिर हम सुधरे तो कैसे ?

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आज सभी और चिंता इस बात कि है कि समाज में घट रही सामाजिक समस्याओं का समाधान क्या है ? कई समाधान उभर कर सामने आ रहे हैं किन्तु , सभी समाधान सरकारी स्तर पर होने चाहिए इस पर ज्यादा ज़ोर दिया गया है । इसके कई कारण भी हैं ,उसमें प्रमुख कारण यह है कि आजादी के बाद से हम सरकार पर निर्भर हो गए हैं । अपना दायित्व मात्र इतना है कि हम अपना वोट किसी को देकर उसे सत्ता तक पहुंचा दे। उसके बाद अपना दायित्व समाप्त हो जाता है और अधिकार पाने की लालसा बढ़ जाती है । हम यह भूल जाते हैं कि अपना भी कुछ कर्तव्य है तो कुछ ऐसे भी अधिकार भी अपने पास है जिसके मार्फत समस्या के समाधान के लिए सरकार को मजबूर कर सकते हैं, पर हमने इस ओर ध्यान ही नहीं दिया नतीजतन समाज में कई समस्याएँ बेल की तरह फैलती चली गई । सबसे बड़ी बात तो यह हुई कि पश्चिमी शिक्षा हम पर हावी हो गई जो हमारे देश के अनुकूल नहीं थी परिणामतः एक बड़ी समस्या शिक्षा क्षेत्र में आई , नैतिक मूल्यों में गिरावट आ गई, धर्म और मूल्यों की बात पोगापंथी हो गई । इसका हमने कोई विरोध नहीं किया । आज कीसामाजिक समस्या के बनने में कहीं – न – कहीं यह भी अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है । हमारी भारतीय शिक्षा का समाज के निर्माण में बड़ी भारी भूमिका रहती थी । आज की सामाजिक समस्याओं का निदान भी इसी भारतीय शिक्षा में निहित है । शिक्षा का उदेश्य ही था एक स्वस्थ ,स्वच्छ समाज का निर्माण ,पर आज ऐसा नहीं दिखता आज की शिक्षा का उदेश्य आदमी को अर्थवान बनाना है। और अर्थ के पीछे भागना अपने आप में एक समस्या को जन्म देना है,इसकी प्राप्ति के लिए आदमी कुछ भी करने को तैयार रहता है । यही से संस्कार का अवमूल्यन शुरू हो जाता है । प्राचीन भारतीय संस्कृति – शिक्षा की महत्वपूर्ण विशेषता विद्यार्थी में उतम संस्कारों का बीजारोपण करना था । समान्यतया भारतीय संस्कृति से आशय ऋषि परंपरा से है । भारतीय उच्च आदर्शों,जीवन मूल्यों ,गुणों के अनुरूप जीवन शैली जो हमें पारिवारिक हस्तांतरण से प्राप्त हुई है । उसी के अनुसार सम्पूर्ण भारतीय जन मानस को को अपनी जीवन शैली बनाना तथा आनेवाली पीढ़ी को वैसा ही तैयार करना ही भारतीय संस्कृति है । संस्कृति ही केंद्र बिन्दु है जो समाज को विचार ,कृति एवं भावना की दिशा प्रदान करती है । हमारी शिक्षा के मूल में संस्कृति ही थी । आज इसका सर्वथा अभाव है । प्राचीन शिक्षा कैसे उत्तम नागरिक बनने का भाव व्यक्ति के अंदर भरती थी,उसकी एक बानगी देखी जाय । इस शिक्षा की कुछ आधारभूत मान्यता रही हैं । आइये इसको देखे — एकात्मतत्व से आशय है कि हम सभी के अंदर विद्यमान आत्मा एक सर्वशक्तिमान एवं सर्वज्ञ परमेश्वर की ही अभिव्यक्ति है । उसका अंश सबमें व्याप्त है । सृष्टि – परम ब्रम्ह तथा माया के संयोग से जिस चीज की रचना होती है उसे सृष्टि कहते हैं। निर्जीव व सजीव वस्तुओं के करोड़ों व अरबों रूपहम इस संसार में देख पाते हैं । हम भी इस सृष्टि के अंग हैं । चार पुरूषार्थ व यज्ञ – धर्म , अर्थ ,काम व मोक्ष चारों का जीवन में उचित समन्वय एवं यज्ञमयी भाव देने की प्रवृति का विकास सबमें में हो । परस्परानुकूलता –भारतीय संस्कृति की मान्यता है कि सृष्टि की रचना इतने योजनावद्ध ढंग से की गई है कि चारों ओर संघर्ष नहीं परस्परानुकूलता है । पुनर्जन्म – कर्मवाद के सिद्धांत के अनुरूप मनुष्य जैसे नैतिक –अनैतिक कर्म करता है उन्हीं का कर्मफल पुनर्जन्म में मिलता है । वसुधेव कुटुंबक्म – सम्पूर्ण मानव जाति परिवार का रुप है । इस प्रकार भारतीय शिक्षा मानव जीवन को विचारों की उदारता वव्यापकता , निष्काम भाव , समाज सेवा की प्रवृति ,प्रवाल आत्मविश्वास, जीवन में संयम ,पवित्रता की महत्ता एवं समर्पण को प्रोत्साहन तथा बल प्रदान करती है । यदि इसे पुनः लागू किया जाय तो निश्चित रूप से सामाजिक समस्याओं से मुक्ति पाने में सफल हो सकते हैं । लेकिन , हमें इसके लिए प्रयास करना होंगा । दूसरे देशों की संस्कृति को छोड़ अपने देश की संस्कृति के अनुकूल चलना होगा ,वैसे भी इसपर विश्व में चर्चा हो रही है कि हर देश अपनी संस्कृति अनुकूल शिक्षा देकर ही अपना विकास कर सकता है ।

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