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आज आधुनिक्ता एक फ़ैशन है । यह सिर्फ बातों और कपड़ों तक सीमित है और तो और किसी बात को बिना किसी कसौटी पर कसे उसे नकार देना और विदेश से तुलना कर अपनी परम्पराओं को ढकोसला बताना और उसे सही ठहराना ही तथाकथित आधुनिकता है । विचारों और व्यवहार में अब तक आधुनिकता नहीं आ सकी है , तभी तो अपने को आधुनिक बताने वाला व्यक्ति कर्म से इतना निम्न हो जाता है कि उसे किसी भी दृष्टि से आधुनिक नहीं माना जा सकता । कपड़े और फ़ैशन में यदि आधुनिकता है तो किसी कवि ने कहा है कि “ यदि नग्नता आधुनिकता है तो हम जन्म से आधुनिक हैं । “ आज बात कुछ ऐसी ही हो रही है , नग्नता में ही आधुनिकता है । यदि ऐसा नहीं रहता तो इस सदी में भी क्या बहुएँ जलायी या उसकी हत्या की जाती ? पटना में एक बहू – पत्नी की हत्या दहेज के कारण कर दी गई । एक समय था जब इस तरह की घटना व्यक्ति के मन – मस्तिष्क को झकझोर देता था पर आज झकझोरता नहीं बल्कि शर्म आती है ,दुख होता है कि नारी सशक्तिकरण के इस दौर में भी नारी निरीह बनी हुई है । जब जैसे मन करता है उसे दुख पहुंचाने की कोशिश से बाज नहीं आता है। दरअसल ,व्यक्ति अपने में बदलाव नहीं ला पाया है । इसके लिए वह जितना स्वयं ज़िम्मेवार है उससे कहीं ज्यादा हमारा वातावरण भी ज़िम्मेवार है । हम मानते थे कि व्यक्ति एक सामाजिक प्राणी है तो उसमे समरसता थी ,आदर था ,सहयोग की भावना थी । वास्तव में वही आधुनिकता भी थी , जहां तर्क था , विवेक था, समानता – सकारात्मक दृष्टि थी । आज की तथाकथित आधुनिकता ये सारी बातें नहीं हैं । घरों के बाहर जब स्त्री पर अत्याचार होता था तो वह अपवाद होता था और अत्याचारी को रावण की संज्ञा मिलती थी । समाजिकता के दौर में इस तरह की घटना मन – मस्तिष्क को झकझोरता था । परंतु , आज व्यक्ति समाजिकता से सिमट कर घर में कैद हो गया है । कारण ,आज का युग अर्थ प्रधान है । अर्थ से ही परिवार और समाज चल रहा है । बच्चे की पढ़ाई , बेटी की शादी ,घर का बेतहासा बढ़ता खर्च सबके लिए तो पैसा ही चाहिए और खर्च के अनुपात में उसकी आमदनी कम है । जब पैसा ही सब कुछ है तो उसकी दिनचर्या पैसे तक रह गई है,पैसे कमाना ,परिवार चलाना एवं पैसे बचाना यही उसका धर्म है,कर्म है । यहाँ भावनात्मक संबंध की कोई अहमियत नहीं होती । जब भावनात्मक्ता नहीं होती वहाँ सकारात्मकता नहीं होती ,विवेक मर जाता है ,तर्क शक्ति खत्म हो जाती है तब इस धर्म और कर्म के लिए व्यक्ति किसी भी हद तक जा सकता है । जा सकता है क्या ,जाने लगा है रहे हो तो इस तरह की घटना शर्मनाक होगी ही साथ ही एक प्रश्न चिन्ह भी खड़ा करता है कि पैसे कि नींव पर खड़ा समाज आखिर कितने दिनों तक चलेगा ?। भावनात्मक के भाव को कुचल कर पटना के रंजीत ने इसी हद को पार कर अपनी पत्नी की हत्या की । जहां पैसा आधुनिकता का मानदंड बन गया हो और संबंध पैसे पर बन रहा हो वहाँ भावनात्मक्ता कैसे रहेगी ?
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