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आज जो घटना मेरे साथ घटी है,समझ में नहीं आता कि उसे किस रूप में रखा जाय । इस घटना से समाज का एक चेहरा सामने आता है जो किसी भी हालत मे समाज और आदमी के लिए अच्छा नहीं है । ये तो हमें ध्यान में आ रहा था कि आदमी के अंदर से सहयोग ,सहानभूति शब्द गायब होता जा रहा है । कुछ वर्षो पूर्व जब कोई आदमी कष्ट में होता था तो दूसरा उसकी सहायता के लिए जाता था ,यह आज भी है , पर इसमें थोड़ी कमी भी आई है । मैंने देखा है कि जब कष्ट से पड़ा आदमी सड़क पर कराह रहा होता है तो उसकी सहायता के लिए कोई इसलिए आगे नहीं आता कि कौन पुलिस के झंझट में पड़े और वह आगे चल देता है । यानि, सहानभूति रहते हुए भी झंझट के भय से लोग अपने अंदर की सहानभूति का गला घोंट देते हैं । गला घोटने की इस प्रक्रिया ने आदमी के अंदर उपेक्षा का भाव ला दिया है शायद यही कारण है कि आदमी ने दूसरे का सहयोग ही करना बंद नहीं कर दिया बल्कि उनपर विश्वास करना भी छोड़ दिया । मुझे लगता है कि आज जो मेरे साथ घटना घटी है उसके पीछे का कारण भी यही है । दरअसल मैं बाइक से शहर से बाहर जा रहा था । अचानक मेरी बाइक खराब हो गई । कुछ दूर जाने के बाद एक मिस्त्री मिला ,उसने गाड़ी को ठीक कर दिया और मजदूरी में 100 रु मांगा , मैंने पॉकेट मे हाथ डाला तो पाया कि मैंने तो पर्स घर में छोड़ दिया है । मैंने अपनी मजबूरी उसे बताई और कहा कि मैं इधर बराबर आता हूँ ,कल भी आना है सो कल पैसा दे दूंगा पर वह नहीं माना । अंत में , उसने मेरी घड़ी लेकर मुझे जाने दिया । हालाकि, वापसी में मैंने उसका पैसा देकर घड़ी वापस ले लिया पर एक बात रास्ते भर सोचता रहा कि क्या आदमी ने इतना विश्वास खो दिया है कि कोई उसकी मजबूरी समझने को तेयार नहीं है । आखिर , कहाँ और कैसे रहेंगा इंसान ? आखिर यह सामाजिक प्राणी ही तो है ,समाज में सहयोग ,सहनभूति नहीं तो समाजिकता कैसी ?मैं यह नहीं कहता कि यह बिलकुल ही समाप्त हो गई पर इतना जरूर है कि समाप्ती कि तरफ बढ़ गया है ।
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